मा नो अग्नेऽमतये मावीरतायै रीरधः ।
मागोतायै सहसस्पुत्र मा निदेऽप द्वेषांस्या कृधि ॥ (ऋग्वेद 3/16/5)
संसार में हर व्यक्ति सुखी रहना चाहता है। इसके लिए तरह-तरह के आयोजन करता है और अपनी बुद्धि तथा क्षमता से साधनों का विकास करता है। इसके साथ यह भी एक निर्विवाद सत्य है कि दुःख जीवन का अटूट अंग है। चाहे मनुष्य कितना ही प्रयत्न कर ले, पर दुःख से उसकी निवृत्ति नहीं हो सकती। संसार में दुःख के इतने कारण हैं कि व्यक्ति कितना भी सूझ-बूझ से काम ले, पर किसी-न- किसी ओर से दुःख आकर घेर ही लेता है। बड़े-बड़े ज्ञानी और धनवान व्यक्ति भी इससे बच नहीं सकते। वास्तव में संसार में सुख के इतने अधिक साधन हैं कि सुखों के आधिक्य वाले व्यक्ति भी दुःख से घिरे रहते हैं। ऐसी स्थिति में जब मनुष्य दुःख से बच नहीं सकता तो फिर उसे चाहिए कि वह दुःख के स्वागत के लिए मानसिक रूप से तत्पर रहे। इस प्रकार दुःख की तीव्रता उसे अधिक प्रभावित नहीं करती।
हमारी योग्यता और प्रतिभा की सार्थकता इसी में है कि हम धीर, गंभीर और वीर बनें तथा हर प्रकार के सांसारिक दुःखों को हँसते-हँसते काट दें। सदा इस बात का ध्यान रखें कि जब सुख के दिन नहीं रहे तो अब ये दुःख के दिन भी जल्दी ही कट जाएँगे। जीवन के प्रति निषेधात्मक दृष्टिकोण भी को दुःखी कर देता है। इससे सदैव बचने का प्रयास करना चाहिए। यदि वह हर समय जीवन में
अभाव की स्थिति का ही ध्यान करता रहेगा, तब भी उसे दुःख सताएगा। यह विचार करना चाहिए कि जो कुछ भी हमें मिला है या मिल रहा है; वह परमात्मा की असीम अनुकंपा का ही फल है और हमारे सुख के हेतु ही है।
अधिकांश दुःख मनुष्य ने अपने अज्ञान, मानसिक विकारों, छल, कपट और स्वार्थ के कारण स्वयं ही उत्पन्न कर लिए हैं। उसने अपने ही हाथों अपना सर्वनाश कर रखा है। यही हमारी दयनीय स्थिति का कारण है। पहले तो मनुष्य अपने दुर्गुणों दुर्व्यसनों के द्वारा ऐसा वातावरण निर्मित कर लेता है कि चारों ओर से उसे परेशानियाँ घेर लेती हैं। ऐसे में उसका विवेक और धैर्य भी नष्ट हो जाता है एवं वह स्वयं इन कठिनाइयों से छुटकारा पाने का मार्ग नहीं
अनुभव वह नहीं, जो मनुष्य के साथ घटता है। अनुभव वह है, जो मनुष्य उन घटनाओं के निचोड़ से सीखता है।
खोज पाता। दूसरे यदि उसे कुछ राय दें तो वह भी उसे असह्य होती है। इस प्रकार की मानसिक विकृति उसके दुःख को और अधिक बढ़ाने का ही कार्य करती है।
दुःखों से छुटकारा पाने के लिए मनुष्य को स्वयं अपनी सहायता करनी होती है। दूसरों की सांत्वना से कोई विशेष लाभ नहीं होता। गीता के अनुसार प्रसन्न रहने से मनुष्य के सभी दुःखों का नाश हो जाता है। यदि वह हर समय हँसने और मुस्कराने का अभ्यास कर ले तो उसकी बुद्धि शीघ्र ही स्थिरता को प्राप्त कर लेती है और इस प्रकार वह निश्चित रूप से सुख की वृद्धि कर सकता है।
सुख दुःख या संसार में, सब काहू को होय ।
ज्ञानी काटे ज्ञान से, मूरख काटे रोय ॥
हमारे ज्ञान की सार्थकता का यही मापदंड है।